गरीबी
गरीबी
नमी है उन आंखों में अश्क़ निकलता नहीं
भूख की तड़प से अब इंसान सहता नहीं
नसीब में होता नही वो एक वक्त का निवाला
महामारी के दौर में भटक रहा वो मारा मारा
दर दर की ठोकरे खाता वो बदतर है जिंदगी
गरीबी है इस कदर शायद इम्तिहान है जिंदगी
तन, बदन ढ़कने को वो पोशाक नहीं मिलता
उम्मीदों की किरण लिए वो दिन-रात है जीता
तपती धूप में निकल पड़ता है हर एक राह में
मिल जाये शायद एक निवाला उसकी चाह में।
