गरीबी के दिन
गरीबी के दिन
आंखों में आंसू दे रूला जाते हैं,
वो दिन जब भी याद आते हैं।
गर्मी के मौसम में जहाँ
हम खुले आसमां में सोते थे।
ठंडी आ जाती तो फिर
एक ही चादर में लिपटे होते थे।
जलते अलांव से जाड़े में,
थोड़ी गरमी भी ले लेते थे।
बारिश में कोई हल नहीं था,
सभी इसमें मौज करते थे।
हर दिन भीगी पलकों से हम,
नए छत की खोज करते थे।
पैसे नहीं थे हमारे जेब में पर,
माँ ने दी खुशियाँ भरपूर थी।
उसकी आंखों का तारा था मैं,
वो बुलाती मुझे कोहिनूर थी।
एक बीमारी के कारण मैंने
अपनी माँ को खो दिया।
फिर एहसास हुआ पैसे का,
दिल मेरा वाकई में रो दिया।
हर घड़ी हर पल जहाँ,
छोटे छोटे व्यपार करता था,
अमीर बनने की चाह थी और
पैसों की खोज करता था।
अमीर तो बन गया मैं और
पैसे पर सब कुछ टिकता है।
पर जो खुशियाँ माँ ने दी,
भला वो क्या बाजारों में बिकताी हैं ?