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मिली साहा

Abstract

4.5  

मिली साहा

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गरीब की दिवाली

गरीब की दिवाली

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एक गरीब के लिए दीवाली का क्या महत्व रह जाता है,

न मिठाई न पटाखे न नए कपड़े न साज-सज्जा होता है,


दीवाली है अमीरों की चकाचौंध, गरीब का घर अंधकार,

चंद सिक्कों से कैसे मने दीवाली आंखें हो जातीं लाचार,


उस बच्चे की उम्मीद का क्या, जिसका पिता है मज़दूर,

दिहाड़ी मिली ना उसको कैसे मनाएं दीवाली वो मजबूर,


बच्चा टकटकी लगाए है दरवाजे पर, कर रहा है इंतजार,

आएगा पिता मिठाई, पटाखे लेकर मनाएगा वो त्योहार,


इन गरीबों की दीवाली तो मन में ही घुट कर रह जाती है,

बेबसी की चादर ओढ़, अमीरों की जगमगाहट देखती है,


उन गरीब कुम्हारों की दीवाली कैसे रोशन हो सकती है,

जिनके बिकते नहीं हैं दीए आंखों में बेबसी झलकती है,


आते- जाते लोग बस कीमत ही पूछ कर निकल जाते हैं

जाते-जाते गरीबों की थोड़ी सी उम्मीद भी तोड़ जाते हैं,


आंख

ों में आंसू लिए वो, समेट लेते हैं अपनी बेबसी को,

कोई न समझे इनकी व्यथा क्या कहेंगे जाकर बच्चों को,


हमारी थोड़ी खरीदारी से मनती दीवाली इन गरीबों की,

भीख नहीं मांगते ये बस थोड़ी कीमत मांगते मेहनत की,


इस बार की दीवाली उनकी मेहनत को सफल बनाते हैं,

बिजली के बल्ब की जगह सभी मिट्टी के दीए जलाते हैं,


चलो इस बार की दीवाली हम अलग तरीके से मनाते हैं,

किसी गरीब के घर में हम खुशियों के दीए जला आते हैं,


खरीद लाते हैं वो मिट्टी के दीए जो फुटपाथों पे बिकते हैं,

दिखने में भले अच्छे न हो पर बडे़ प्यार से बनाए जाते हैं,


दे आते हैं कुछ मिठाई पटाखों के साथ थोड़ी सी मुस्कान,

ताकि दीवाली पे रोशन हो सके उस गरीब का भी मकान,


तब होगी ये दीवाली रोशन खुशियां होगी हर घर आंगन में,

छट जाएगा अंधकार और प्रकाश होगा सभी के जीवन में।



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