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Richa Aggarwal

Tragedy

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Richa Aggarwal

Tragedy

गरीब का अन्तर्द्वन्द

गरीब का अन्तर्द्वन्द

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574

कुछ तो मजबूरी रही होगी उस शक्स की

जो मीलों पैदल चला तपती धूप में

कुछ पुराने सामान का बोझ अपने सिर पर उठाए


सरकार ने, चंद पत्रकारों ने और हम जैसे समाज के ठेकेदारों ने

बड़े ही तीखे अंदाज़ में उस पर टिपण्णी भी करी

कि क्या इनको देश में फैली हुई कोरोना नाम की महामारी का एहसास नहीं

क्यों नहीं सुन और समझ रहें हैं ये 

क्या इन्हें खुद की जान की भी परवाह नहीं


सुनने में तो ये भी आया कि सरकार ने

इनके लिए दो वक़्त की रोटी और रहने का इंतज़ाम भी किया है


पर मै आपसे ये जानना चाहती हूं कि 

क्या खुद का पेट भर लेना और डर के साये में

अकेले रातें गुज़ार लेना ही एक गरीब की ज़िंदगी का मकसद होता है


क्या इसीलिए आता है वो शहरों की चकाचौंध में

अपने गांव और परिवार को छोड़कर


ये भी तो हो सकता है ना कि हमारी - तुम्हारी तरह ये वक़्त

उसको भी डराता हो

डर इस बात का की मेरा परिवार मुझसे इतना दूर है

वो सब वहां पर ठीक तो होंगे ना

मेरे बूढ़े मां-बाप , मेरी बीवी और बच्चे भी तो मेरे लिए फिक्रमंद हो रहे होंगे

और फिर क्या जवाब दूंगा मै उन्हें की अब घर चलाने के लिए 

मै उन तक हर महीने कुछ पैसे भिजवा भी पाऊंगा या नहीं


शायद अपने मां बाप का वो बेबस चेहरा ,

बीवी की वो राह ताकती उदास नज़रें और

पापा कब आएंगे हमारे खिलौने लेकर ,

मासूमों के ये सवाल ही होंगे जिन्होंने

मजबूर कर दिया होगा उस और उस जैसे हर शख्स को,

और खुद ब खुद बढ़ने लगे होंगे उनके कदम अपने आशियाने की ओर

और वैसे भी ज़िंदगी हर वक़्त इतनी भी मेहरबान रहे ये जरूरी तो नहीं

तो जब ज़िंदगी का कोई भरोसा ही नहीं 

तो क्यों ना बिता ले ये वक़्त अपनों के बीच रहकर सबके साथ मिलजुलकर।


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