गंतव्य तक
गंतव्य तक
बढ़ते ही जाना है, चलते ही
जाना है,
बस पहुँचना है गंंतव्य तक।
एक नदी की धारा जो, बहती है,
बहती जाती है।
नि:सृत होकर पर्वतों से,
शैल-पाषाणों से टकराती है।।
अपने लक्ष्य में जाते तक,
हार नहीं मानती है।
विविध व्यवधान दूर कर,
गंतव्य सागर तक आती है।।
उसका है सिर्फ कर्तव्य एक,
बस पहुँचना है गंतव्य तक।
बढ़ते ही जाना है,चलते ही जाना है,
बस पहुँचना है गंंतव्य तक।।
स्वयं सूर्य को देख लें,
नित्य-प्रति वह आता है।
चाहे हो अंधियारा कितना,
वह रौशनी फैलाता है।।
तम कभी न हरा पाता उसे,
उसका है सिर्फ कर्तव्य एक।
बढ़ते ही जाना है,चलते ही जाना है,
बस पहुँचना है गंंतव्य तक।।