गलती मेरी ही थी
गलती मेरी ही थी
ठीक ही तो कहा था उसने
कमी उसमें नहीं
कमी तो मुझमें थी जो चाहने लगा था उसे
जिंदगी से भी ज्यादा
कमी तो मुझमें थी जो दिल थमा बैठा उसे
आषाढ़ की पहली बरसात में
कमी तो मुझमें थी जिसे ज़िन्दगी समझ बैठा
खुद को समझने से पहले
वो तो कल भी बेगुनाह थी और
आज भी है बेकसूर ख़ुद की नजरों में
गलती तो मेरी थी जो उसकी इजाज़त बिना
मोहब्बत कर बैठा इक अजनबी से
आज भी सोचता हूँ उसने तो कभी
इज़हार भी नहीं किया अपनी चाहतों का
और मैं भी इतना पागल
उसकी इक मुस्कान को कुछ-कुछ समझने लगा
उसकी भोली मुस्कान, अबोध खामोशी
पगली को शायद मालूम भी न होगा कि
मुझसा कोई दीवाना लगा है चाहने उसे
शायद गलती उसकी नहीं
गलती मेरी ही थी उस दुनियाँ में जीने की
जो बनी थी किसी और के लिए।