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MANISHA JHA

Tragedy

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MANISHA JHA

Tragedy

ग्लानि

ग्लानि

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तुम क्या जानो.. बेजार दिल की बेचैनी

दरिया वो आँसूओं का, जो बहता रहा ख़ामोशी से

एक औरत जब घर से बाहर निकलती है

सारे जमाने के आँखों में चुभती है।


किन मजबूरी, अपराधबोध को समेटे आँगन छोड़ती है

नारी के इस तमाशे भरे गाथा पे दुनिया हँसती है 

हसीन सपने के पीछे खुद को दाव पे लगाती है

अपनी खुशियों के सिवा सब कुछ पा जाती है।


गलियों से गुजरती हुई छिप-छिप के रोती है 

इसी ग्लानि में ना जाने उम्र के किस मोड़ पे आ जाती है

सुबह से रात तक शरीर और दिमाग़ को

मशीन की तरह ऑन रखती है।


अपना राज कहे किसे, बिना कहे समझे कौन...

इसीलिए ख़ामोशी से सब सहती है

कितना मुश्किल है... ये किरदार निभाना

माँ, बहन, बहु, भाभी बनकर सबका ख्याल करना 

अपने अंदर के तूफ़ान के उफ़न को रोके रखना।


ये बाँध टूट ना जाए.. किसी दिन

इस भरम में... चेहरे पे नकली मुसकान रखती है

ईश्वर ने भी क्या खूब बर्दाश्त दी है

घर, परिवार और समाज के सम्मान का बोझ

बेटियों के मासूम से कंधे पे रख दी है।


जान चली जाए... पर किसी के उम्मीद को

ना.. टूटने देने की सन्मति/ सद्बुद्धि दी है।

वो दुर्गा है, काली है, लक्ष्मी और सरस्वती है

वो समाज के लिए साक्षात् भगवती है।


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