ग़ज़ल
ग़ज़ल
सियासत पाने को अब मच उठा बवाल है,
मैदान ए जंग भी अब सुर्ख़-सा लाल है।
बेफ़िज़ूल ही उजड़ रहीं ये निर्दोष ज़िन्दगियाँ,
हज़ारों माॅंओं की कोख़ का सवाल है।
पांवों को उतार ले अब ए ख़ुदा जमीं पर,
वीरानियों के ज़हन में तेरा ही ख़याल है।
मुश्किल है ज़िक्र करना तेरे इस किरदार का,
पल-पल बदल रहा नूर तेरा कमाल है।
मालूम है मुआफ़ी देना तेरे लिए आसां नहीं,
कसूरों का मेरे लेखा भी तो विशाल है।
हवा भी न बुझा पा रही दिल के इस चराग़ को,
इश
्क़ नहीं तो तनहाई कैसी ख़ुद से ये सवाल है।
दर्द सहते-सहते दिल भी बन गया अब पत्थर है,
टटोल कर देख इसे इसका हाल बड़ा बेहाल है।
कांटे छोड़ बटोर ले हर पल से गुलाब तू,
बुरे पल भूल जा क्यूॅं कर रहा मलाल है।
हुनर को तू अपने कभी मैदान भी बख़्श दे,
व्यर्थ ही में भीग रहा तेरा ये रूमाल है।
नींद है आंखों में तो उड़ा दे शीघ्र उसको,
दिल में फिर जगा जो हौसलों का उबाल है।
थकना तेरा काम नहीं, झुकना तेरे नाम नहीं,
तूफ़ानों से आंख मिला तुझमें भी जलाल है।