हे राही ! आज फिर भौर भई है....
हे राही ! आज फिर भौर भई है....
हे राही! आज फिर भौर भई है,
चल उठ मुश्किल और भई है,
थोड़े काॅंटें और बढ़े हैं,
आंधी थोड़ी तेज भई है,
कुछ क्षण कसौटी की घड़ियाँ
तेरे आंगन की मेहमान भई हैं,
चल उठ राही भौर भई है।
शिला बर्फ़ की टूट पड़े,
कुछ ऐसी तेरी शक्ति है,
आंखों में उद्वेग लिए,
मंज़िल पाना तेरी भक्ति है,
टुक जाग गगन में काली घटाएँ
गहरी थोड़ी और भई हैं,
चल उठ राही भौर भई है।
स्वप्नों पर हृदय मुग्ध ना कर,
चलने से पूर्व बाट की पहचान कर,
नींद की मधुशाला में,
कब विभावरी भौर भई है ?
निकल कल्पनाओं के जादू-भवन से
विजय ध्वजा अब लहराने को तत्पर
राहें तेरी देख रही है,
चल उठ राही भौर भई है।
किंचित भी भयभीत न होना,
गिर जाए तो खुद से संभलना,
हो जाए जब भी तू विकल,
साहस की सरिता का मृदुजल,
अंजलि भर तू पीते रहना,
बटोही ! बस तू ये समझना कि
आधी राहें कट चुकी हैं,
बस थोड़ी मंज़िल शेष रही है,
चल उठ राही भौर भई है।
शब्दार्थ:-
उद्वेग=जोश, किंचित=बिल्कुल भी,
टुक=ज़रा-सा, विकल=परेशान,
बाट=रास्ता, बटोही=राहगीर
