सुनसान न हुए
सुनसान न हुए
मुद्दतों बाद मिलकर भी कभी अनजान न हुए,
चुपचाप तो थे हम मगर कभी बेज़ुबान न हुए।
गए तो तुम थे इस हसीन शहर को छोड़कर,
हमारे दिल के रास्ते तो कभी सुनसान न हुए।
मख़मूर थीं तेरी ये आला नजरें,
डूबने की चाह थी मगर तुम कभी मेहरबान न हुए।
मिरी साॅंसे और ख़याल तो बस तेरे ही गुलाम थे,
मुहब्बत तो बेइंतहा थी, मगर तुम कदरदान न हुए।
फूलों -सी महक थी तेरे दिल की गहराई में,
मगर इस गुलिस्ताँ के हम कभी मेहमान न हुए।
तेरी इस रूह में शबाब का चढ़ता नशा था,
मसरूफ़ होना था हमें, मगर तुम मेज़बान न हुए।
बरसों बाद भी याद थी हमें तेरी हर एक अदा,
खुद से सवाल था, क्यों हम इन पर कुर्बान न हुए।
नींद में ख़्वाबों में भी एक ही अलम सताता है,
इतनी शिद्दतों बाद भी तेरे दिल के सुल्तान न हुए।