गज़ल आदमी हूँ
गज़ल आदमी हूँ
तुम्हारे दिये हुये जख्मों के इश्तहार लिये फ़िरता हूँ ।
आदमी हूँ मैं हर वफ़ादार आदमी से प्यार करता हूँ।
तुमको लगता है कि मैं हूँ कोई दिल फेंक आशिक ।
सच तो यह है कि मैं सरे बाज़ार नहीं फिरा करता हूँ ।
तुम्हें अपना समझ कर ही हुआ था तुम पर फिदा।
अब टूट के बिखरने से शायद हर वक्त डरता हूँ ।
जमाने ने जाना मुझे आलिमफाज़िल काबिल इंसा।
पर तुम्हारे अब्बा हुज़ूर को जाने क्यूँ मैं अखरता हूँ।
"इरा" की ख्वाहिश है कि मैं हमेशा खुशमिजाज दिखूँ।
इसलिये हर पल खुद ही उसके लिये रहता संवरता हूँ।