मनमीत मेरे
मनमीत मेरे
मनमीत मेरे ये तुमने कैसा कमाल कर दिया ,
गुमसुम सी थी मैं पर तुमने धमाल कर दिया ।
खिला कर कमल मेरे गुलशन का अनजाने में ,
गुल ऐ गुलज़ार दर्द ऐ दिल का हाल कर दिया ।
जुबां पे छाई थी ख़ामोशी से जो बात अब तक ,
कह कर सरेआम बदनाम कर बेहाल कर दिया ।
मिलने की बेताबी में थोड़ा संयम तो रखा होता ,
खामोश लबों को छू के ये कैसा सवाल कर दिया ।
तुम्हारी हूँ तुम्हारी ही रहूँगी करती हूँ वादा तुमसे ,
इश्क ने तेरे “इरा” का यह कैसा हाल कर दिया ।
#परवीन_शाकिर जी द्वारा लिखित पूरी ग़ज़ल
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर
दिया
.
ऐ मिरी गुल-ज़मीं तुझे चाह थी इक किताब की
अहल-ए-किताब ने मगर क्या तिरा हाल कर दिया
.
मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई
उस ने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया
.
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया
.
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया
.
चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके
वक़्त ने किस शबीह को ख़्वाब ओ ख़याल कर दिया
.
मुद्दतों बा'द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया
मंसब-ए-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया
.