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Ira Johri

Abstract

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Ira Johri

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मनमीत मेरे

मनमीत मेरे

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मनमीत मेरे ये तुमने कैसा कमाल कर दिया ,

गुमसुम सी थी मैं पर तुमने धमाल कर दिया ।


खिला कर कमल मेरे गुलशन का अनजाने में ,

गुल ऐ गुलज़ार दर्द ऐ दिल का हाल कर दिया ।


जुबां पे छाई थी ख़ामोशी से जो बात अब तक ,

कह कर सरेआम बदनाम कर बेहाल कर दिया ।


मिलने की बेताबी में थोड़ा संयम तो रखा होता ,

खामोश लबों को छू के ये कैसा सवाल कर दिया ।


तुम्हारी हूँ तुम्हारी ही रहूँगी करती हूँ वादा तुमसे ,

इश्क ने तेरे “इरा” का यह कैसा हाल कर दिया ।


#परवीन_शाकिर जी द्वारा लिखित पूरी ग़ज़ल


चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया 

इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर

दिया 

.

ऐ मिरी गुल-ज़मीं तुझे चाह थी इक किताब की 

अहल-ए-किताब ने मगर क्या तिरा हाल कर दिया 

.

मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई 

उस ने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया 

.

मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था 

हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया 

.

मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो 

शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया 

.

चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके 

वक़्त ने किस शबीह को ख़्वाब ओ ख़याल कर दिया 

.

मुद्दतों बा'द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया 

मंसब-ए-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया 

.


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