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Ira Johri

Abstract

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Ira Johri

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कहो तो

कहो तो

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कहो तो कह दूँ !

ख़्वाहिश अपनी कि

अब हम नहीं चाहते ।

बन्दिशों के धागो से बंध 

पतंग की तरह उड़ना।

देखना चाहते हैं

जी भर कर बस एक बार ,

खुले आकाश में ,

परिन्दों की तरह उड़ान भरना ।

हो सके तो

बांध आशा और विश्वास की डोर 

थाम हौले से नाजुक रिश्तो को 

चरखी से बंध कर भी प्रीत जता

दिनचर्या के उलझे धागों में बिंध 

लौट सांझ को अपनें घर आती ज्यूँ।

देखती खुश हो कर फिर 

शोरगुल करते बच्चों को लिपटते 

आसमान दिखता कितना सुन्दर ,

छाई रहतीं जब संक्रांति पर्व पर पतंगे दिन भर

सच कहा न "इरा" नें 

कुछ इसी तरह है हमारी कहानी ।



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