घन घटा छाई
घन घटा छाई
घन घुमड़ घुमड़ घहराते हैं
या मेरे मन की पीड़ा को
समझ समझ सहलाते हैं
और अपना साथ निभाते हैं।
मन को कुछ याद दिलाते हैं
सहज ही पीड़ा को हरते हैं,
इनका भी अपना आकर्षण है
अनायास ही प्रसन्न बनाते हैं।
प्रकृति मानव के सुख दुःख की
सहचरी रही शुरू से सदा से ही
मानव ने प्रकृति से ही जुड़कर
अपने दुःख को भुलाना पाया है।
यह प्रभु की अनुपम रचना
प्रभु की याद दिलाती है
इसका विस्तार गगन में
सब ओर आह्लाद लाता है।
संसृति में न केवल मानव है
न केवल निसर्ग का वर्चस्व है,
दोनों ही यहॉं सर्वत्र समान हैं
समष्टि से ही जीवन बनता है।
