ग़ज़ल ( टूटा हुआ शज़र )
ग़ज़ल ( टूटा हुआ शज़र )
बेफ़िक्र, बेपरवाह दुनिया के रस्म-ओ-रिवाज़ों से,
क्यूँ उड़ी जा रही हूँ, किसी अहसास के परवाज़ों से,
क्यों एक नज़र भर तुम्हारी, मेरी साँसों को थामे है,
तुम्हारे रंग में रंगने लगी अब, मेरी सुबहे और शामें हैं,
तुम कौन हो मेरे ! ये प्रश्न भी ज़हन में उठता नहीं है,
बस तुम हो, कोई और नाम जुबाँ पर टिकता नहीं है,
तुम्हारे अहसास भर से, मैं ख़ुद को भूल जाती हूँ,
हर रात तुम्हें ख़्वाबों में आने से, कहाँ रोक पाती हूँ,
एक डोर है नाज़ुक सी, जिसके एक छोर पर तुम हो,
क्या मैं भी वही हूँ, तुम जिसकी उल्फ़त में गुम हो,
निभाओगे मेरा साथ तुम, बस एक ये वादा दे दो,
हर जन्म में मेरे होकर रहोगे, ये पक्का सा इरादा दे दो।।