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अधिवक्ता संजीव रामपाल मिश्रा बाबा

Tragedy Inspirational

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अधिवक्ता संजीव रामपाल मिश्रा बाबा

Tragedy Inspirational

गांव छोटा और शहर बड़ा हो गयाहै

गांव छोटा और शहर बड़ा हो गयाहै

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गांव छोटा और शहर बड़ा हो गया है,

जरुरत नहीं आदमी खड़ा हो गया है।

लम्बा जाम घरघराते कल उठता धुंआं,

जरुरत बड़ी और शैर छोटा हो गया है।


वही राग वही तंज मंच पर बैठा आदमी,

रोजगार की फिक्र शहर घूमता आदमी,

गांव में जातिय बबाल करती राजनीति,

गांव से शहर पलायन कर गया आदमी।


कभी बाप बेटा नाती खलियान बनाते थे,

अब बूढ़ा शहर में मजदूर बन गया आदमी।

गांव में जाति और भुखमरी का कांव कांव,

शायद मजबूर शहर को पलायन गांव गांव।


शहरों की चकाचौंध में आदमी डवांडौल,

गांवों की शान शहर में अजनबी माहौल।

एक लाचारी एक बीमारी का इलाज महंगा है,

आदमी की तलाश आदमी अपराध कर बैठा है।


समाज का निर्माण अब कहां तय होता है,

पेट को आदमी ही आदमी को तक बैठा है।


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