एकलव्य
एकलव्य
धनुर्धर वीर थे तुम
प्रतापी कर्तव्यपरायण भी रहे
द्रोण जैसा गुरु बनाया
कृतज्ञ जीवन भर रहे
मार्ग अद्भुत थे तुम्हारे
शिक्षा प्राप्ति के वो सारे
छिप छिप ले सीखी धनुर्विद्या
बन गए एक कुशल योद्धा
पर अर्जुन से अच्छा इस धरा पर
धनुर्धर कोई ना और होगा
वचन दे पांडवों को ये
द्रोण ने अर्जुन में सींची धनुर्विद्या
किन्तु एक दिन ये यश तुम्हारा
गुरु द्रोण अर्जुन ने सुना जब
श्वान के मुख को भी तुमने
भेद बाणों से किया चुप
आश्चर्य में पांडव सोचते थे
कौन अर्जुन से यशस्वी
धनुर्धारी इतना प्रतापी
ज्ञान जिसका सबसे उत्तम
गुरु द्रोण शंका से ग्रसित थे
आनंद में कौरव मगन थे
अर्जुन भी मन में सोचता था
योद्धा ये कैसा विचित्र होगा
गुरु द्रोण संग वन ओर निकले
ढूँढने वो धनुर्धारी
वनों में रहने वाला
एकलव्य था वो प्रलयंकारी
अर्जुन नतमस्तक से थे
गुरु द्रोण चाहते पूछना
किसने तुम्हें विद्या सिखायी
सिखाया इस तरह शर भेदना
एकलव्य गुरु को देखकर
हर्षोन्मुख सा हो गया
नाम गुरु का बताया
सुन द्रोण का मन डर गया
कहने लगा एकलव्य गुरुवर
आपकी प्रतिमा ही गुरुवर है मेरी
वन बीच शिक्षा ली है तुमसे
मानो तो गलती है मेरी
पर आज दर्शन पा तुम्हारे
धन्य मैं तो हो गया
आशीष दो या दण्ड अब तो
जीवन में सब कुछ मिल गया
क्रोध गुरु द्रोण सर पर
कुछ इस तरह मंडराने लगा
सही गलत का भेद मिट गया
भ्रम अन्धकार छाने लगा
क्रोधित हो बोले गुरु यदि तुमने बनाया
गुरु दक्षिणा क्या नहीं दोगे
यदि मुझसे है सीखी धनुर्विद्या