एक माँ ...
एक माँ ...
चूल्हा रोटी औऱ हाथ के छाले
उम्र हो चली औऱ हो गये सफ़ेद बाल सारे
एक तजुर्बा था उस उम्र का
एक सलीके से जीवन जिया उसने प्यारे...
बचपन से ही सिख लिए जीवनके तरीके सारे
हुई बड़ी...गई ससुराल वोह सयानी
जी ज़िंदगी जो सुनी थी माँ- बाबा की ज़ुबानी
ससुराल की हो चली
सारे अरमान खुद के खो चली
बच्चे हुए.. औऱ उनकी ज़िंदगी सजाई
माँ- बाप के लिए कबसे थी पराई
उम्र गुज़ार दी पूरी
खुद हो गई बूढी
बस दीखते थे उसे सिर्फ
चूल्हा रोटी औऱ हाथो के छाले
एक माँ थी...
उसने बिताई ज़िंदगी ऐसे ही प्यारे...!