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Ahmak Ladki

Abstract

4  

Ahmak Ladki

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एक बादल था आवारा सा

एक बादल था आवारा सा

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एक बादल था आवारा सा, बिन बरसे प्यास बुझाता था,

पर धरती की क़िस्मत देखो, भीगी थी फिर भी प्यासी थी !

 

एक सागर ठहरा-ठहरा था, ख़ामोश था क्यूंकि गहरा था, 

एक नदिया अविरल, निश्चल, हर पल कल-कल बहती थी !


एक चाँद भी कितना पागल था, बदली में नूर छुपाता था,

एक चाँदनी थी दीवानी, छू लो तो बिखरी जाती थी !

 

फूल को लुटने का डर था, भँवरों से नज़र चुराता था,

एक कली की अपनी ज़िद थी, खुल के जीना चाहती थी ! 


उड़ने की धुन में जीता था, वो तो आज़ाद परिंदा था, 

एक गौरैया थी दीवानी, सपनों का नीड़ बनाती थी !


जाने कैसा परवाना था, ख़ुद में ही गुमसुम सा रहता था,

अनजाना था एक शमा से, जो उसकी ख़ातिर जलती थी !

 

एक कृष्ण की क्या क़िस्मत थी, लोगों के बीच अकेला था, 

एक मीरा मतवाली थी, कण-कण में कृष्ण को पाती थी ! 


एक प्रेम, निस्वार्थ, निरंतर, निर्बाध जो चलता रहता था, 

‘अहमक’ प्रीत थी, अलबेली सी, पत्थर पे भी उग जाती थी !


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