एक बादल था आवारा सा
एक बादल था आवारा सा
एक बादल था आवारा सा, बिन बरसे प्यास बुझाता था,
पर धरती की क़िस्मत देखो, भीगी थी फिर भी प्यासी थी !
एक सागर ठहरा-ठहरा था, ख़ामोश था क्यूंकि गहरा था,
एक नदिया अविरल, निश्चल, हर पल कल-कल बहती थी !
एक चाँद भी कितना पागल था, बदली में नूर छुपाता था,
एक चाँदनी थी दीवानी, छू लो तो बिखरी जाती थी !
फूल को लुटने का डर था, भँवरों से नज़र चुराता था,
एक कली की अपनी ज़िद थी, खुल के जीना चाहती थी !
उड़ने की धुन में जीता था, वो तो आज़ाद परिंदा था,
एक गौरैया थी दीवानी, सपनों का नीड़ बनाती थी !
जाने कैसा परवाना था, ख़ुद में ही गुमसुम सा रहता था,
अनजाना था एक शमा से, जो उसकी ख़ातिर जलती थी !
एक कृष्ण की क्या क़िस्मत थी, लोगों के बीच अकेला था,
एक मीरा मतवाली थी, कण-कण में कृष्ण को पाती थी !
एक प्रेम, निस्वार्थ, निरंतर, निर्बाध जो चलता रहता था,
‘अहमक’ प्रीत थी, अलबेली सी, पत्थर पे भी उग जाती थी !