एक औरत हूँ
एक औरत हूँ
इस भागदौड़ की जिन्दगी में
हर पल को खुबसूरत बनाने की कोशिश करती हूँ,
एक औरत हूँ और रोज ना जाने कितने
उतार चढ़ाव को पार करते हुये ,
किनारे तक आने की कोशिश करती हूँ।
भरती हूँ कुछ ऐसे पल अपने दामन में,
जो मीठी सी मुस्कान छोड़ जाते हैं
मेरे उदास चेहरे पर। ।
जब समाज का कोई ताना
आँखो में नमी को तेराकर चला जता है,
तो उस नमीं को मैं अपने मजबूत इरादों के
पल्लू से पोंछ लेती हूँ ,
लेकिन टूटती कभी नहीं हूँ
क्योँकि मैं जानती हूँ कि
मेरे परों को खुले आसमां में
फैलने से कोई नहीं रोक सकता
ना समाज ना समाज की संकुचित सोच ।
मेने समाज की वो बेड़ी जिसमें
महिला और पुरुष मे भेदभाव की जंग लगी है
उसको अपने पैरों से छूने तक नही दिया।
पुरुष प्रधान समाज की पतंग के मान्झे से
मेने अपनी उड़ती जिंदगी की पतंग
कभी नहीं कटने दिया ।
जब भी मन की किताब पर
हताशा या निराशा की रज जमने लगती है
तो तुरंत उसको साफ कर देती हूँ
अपने हौसलों के मलमल के कपड़े से,
क्युकि मै जानती हूँ मेरी जिंदगी
मुझे कैसे खुबसूरत बनानी है,
जिन्दगी के दिन काटने नहीं है जीने हैं,
जिसमे केवल हँसते हुये झरोखे हो
घुटन भरे सन्दूक ना हो,
जिसमें मेरी ख्वाईशैं
सिसकती हुई बन्द हो जाये।
मेरी हर ख्वाइश मेरे लिये मायिने रखती है
फिर चाहे वो ओस से बूँद बन जाने की हो
या बूँद से बादल।
मेरी जिंदगी मेरी है अगर मैं
घर परिवार और समाज के लिये
अपने हर कर्तव्य को तहेदिल से निभाती हूँ ,
तो मुझे भी हक है कि अपनी जिन्दगी के
फैसलों में अपने हक के रंग भरूं।
अपनी जिन्दगी के पलों को
सुकून के पानी से सींच सकूँ,
मेरी जिन्दगी मैं पसरी संकीर्ण सोच के धुँध को
अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान से हटा सकूँ।
अपनी जिन्दगी के हर पल को खुबसूरत बना सकूँ
और ये कोशिश अन्तिम साँस तक जारी रहेगी।।