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Prem Bajaj

Abstract

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Prem Bajaj

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एक और एक ग्यारह

एक और एक ग्यारह

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एक अकेला खडा़ उदास,

काश उसका भी हो कोई साथ

दूर हुई उसकी उदासी,

जब पास आया उसके,

उसका "एक" और साथी।


एक ने देखो क्या रँग दिखाए

एक से मिलकर एक दो हो जाएँ।

कभी एक में एक मिलकर

हो जाते वो एक ही,

खो देते वो अपना आप

मिलकर इक दूजे से।


जैसे नदियाँ मिलती सागर में

खो कर अपना अस्तित्व,

वो जाते वो एक,

जैसे एक तुम और एक मैं मिल कर

हुए फिर एक ही,


जैसे एक दूध, एक पानी,

दोनों मिलकर हो जाते एक,

जैसे एक शिव,

एक शक्ति मिल एक होकर

ब्रह्मांड रचाया।


कभी एक से एक

मिलकर हो जाते वो ग्यारह

जैसे कोई मेहनत-कश

मिलकर बन जाते वो ग्यारह,

जैसे कोई एक शक्ति,

एक से मिलकर पूर पहाड़

उठाले बन जाती वो ग्यारह।


जैसे एक चींटी से एक चींटी

मिलकर इक बड़ा तिनका

ले जाती वो उठा कर,

आ जाती उनमें ग्यारह सी शक्ति।


एक के साथ एक लिख दो

ग्यारह तो बन जाए वो ग्यारह।

एक दीये सँग एक दीया मिल जाए तो,

रोशनी को फैला कर,

अंधेरे को कर दे नौ दो ग्यारह।


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