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Sulakshana Mishra

Abstract

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Sulakshana Mishra

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दूसरा पहलू

दूसरा पहलू

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बालों में जब उतरी चाँदी

वो चाँदी,

सबको नज़र आती है।

पर देहरी पर उसके

तज़ुर्बों की जो होती आवाजाही

वो आवाजाही

नज़र किसी को आती ही नहीं।


झुर्रियां जो फ़ैली उसके तन पर

फ़ैला कर अपनी सिकुड़न

वो सिकुड़न

सबको नज़र आती है।

पर वो खिंचती रहती जो दिन भर

ले कर फिरती है दिन भर

अपने टूटे सपनों का भार

अपने ही मन पर लेकर।

वो भार, 

नज़र किसी को आता ही नहीं।


बह जाते हैं अकसर कई सवाल 

आँखों से उसके।

वो बारिश,

सबको नज़र आती है।

पर जब छलनी होता उसका मन

शब्दों के जहरीले बाणों से

पल दर पल।

वो ज़हर

नज़र किसी को आता ही नहीं।


बिखरी रहती है वो सदा

कभी अर्धांगिनी बन

तो कभी बहन और बेटी बन।

उसका बिखरापन 

सबको नज़र आता है।

पर बन के नींव का पत्थर

वो संभालती है सब कुछ

वो संभालना

नज़र किसी को आता ही नहीं।

होते हैं हर सिक्के के दो पहलू

नारी का एक पहलू

सबको नज़र आता है।

दूसरा पहलू

नज़र किसी को आता ही नहीं।


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