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Harshita Srivastava

Classics

3  

Harshita Srivastava

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दुल्हन

दुल्हन

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ठंडी सदाओं में

दुल्हन सी बैठी 

है पीली चुनरी 

ओढ़कर 


पंक्षी के गीत पर

थिरकती बहकती

जल के बहाव को


अपलक निहारती 

हुईं मानों

कहरही हो 

इससा चंचल मेरा 

भी मन है


खग के पंखों पे

अचरज करती 

छूती आकाश के 

रंगों को

पैरों में पहन रखी है


हरी भरी घासों की पायल

अपना मटमैला संभालती

कानों में विविध फूलों

के कुडंल पहने। 


बादलों का काजल 

लगा अपनी सुन्दरता

पे हर्षाती। 


ओह ! धरा आज वसंत

में सबके मन को 

कितना मोह रही है ना। 


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