दशानन- लंकापति रावण
दशानन- लंकापति रावण
क्या कहूँ मैं रावण दशा को, चिंतित, बेखबर जो कभी न था
विष्णु अवतार है श्री राम जी, अनभिज्ञ न वो इससे था।
भान था उसको मरना जरूर है, जब श्री राम से ही उसका सामना था
जिसकी शक्ति का पार न कोई, दशानन शत्रु उसका था।
खाली न जाता वार राम का, रावण इतना न अज्ञानी था
चाहता तो अपने प्राण बचाता, पर लंकापति रावण न ऐसा था।
बड़े-बूढ़े सब हार चुके थे, साधू-संतों ने बड़ा समझाया था
मुक्ति की पहले ही ठान चुका जो, उसकों कौन समझाएगा।
मर्यादा भी इतनी कठोर थी उसकी, सीता को कभी न छुआ था
मान दिया पूरा सीता माता, उसे सती का दर्जा देता था।
भेद को उसके जानना न पाएँ, काल का चक्र भी घूमा था
हर लेता जो बुद्धि सबकी, कुल का विनाश सिर चढ़ मडराया था।
रोती-बिलखती घर की नारियाँ, श्मशान भी घर ही बन गया था
अहं, अभिमान में तन के खड़ा रहा जो, अभिमानी रावण कुछ ऐसा था।
भाई-बच्चे मारे गए सब, अन्तर्मन से भी टूटा था
अंत समय तक युद्ध किया जो, आखिर लंका का वो राजा था।
गुण गाते है श्री राम भी उसका, जिनका एकमात्र शत्रु रावण था
जीवनदान दे जो क्षमा माँग ले, जो अपने बाहुबल से सब कुछ पाया था।
आहुती देता प्राणों की अपने, मंजूर न उसकों झुकना था
उपदेश देता वो मरते-मरते, अभी तक लक्ष्मण जिससे अछूता था।