दर्पण
दर्पण
उसके पायल की छम छम,
सुमधूर कर देती घर आँगन।
तुतलाते उसके बोल,
कानों में देते संगीत घोल।
माँ-बाप की वह परी
सुंदर सी राजकुमारी।
लगाती माथे पर,
काज़ल का टिका।
ना लगे नज़र किसी की बुरी
सजी गुड़िया सी।
रुकती एक क्षण
देखती फिर दर्पण।
चलती थी अपने रास्ते
एक दिन किसी की,
पड़ी नज़र बुरी।
टुटी हुई चूडिया,
बिखरी थी सारी।
चीख चीख कर,
कह रही थी,
मजबूरियाँ सारी।
चहल पहल हो गयी,
अब उसके लिए गौन।
फिर ना देखा उसने,
कभी भी दर्पण।
फिर ना देखा उसने,
कभी भी दर्पण।।