“ दृग्भ्रमित मित्र “
“ दृग्भ्रमित मित्र “
अपने सहकर्मियों को जानते नहीं
पहचानते नहीं दोस्त तो
हमने लाख बना रखा है !
पर किन्हीं का नाम हम जानते नहीं !
बस हम तो अपने धुन के मतवाले हैं
हमें औरों से है क्या लेना ?
कोई हमसे चाहे आज जुड़े या
बिछुड़ गए तो क्या लेना ?
किसको है परवाह यहाँ पर
कौन कहाँ पर रहता है ?
किसकी कौन सी चाहत हैं
शायद ही कोई समझता है !
भूली- भटकी प्रतिक्रियों को
हम नजर अंदाज कर जाते हैं !
शब्दों से आभार, अभिनंदन
कहने से कतराते हैं !
है मेरी यह अभिलाषा कि
हमारी भंगिमा को सब देखें !
और सदा हमारा गुणगाण करें,
हम जो करते हैं जो कहते हैं
टेढ़ी -मेढ़ी सूरत को देखके
स्तुति गान करें !
हम ज्ञानी हैं सब गुण के हम आगर हैं
हम कवि है लेखक हैं
सब नदियों के हम सागर हैं !
इस भ्रम में पड़कर मत रहना
सब कीअपनी पहचान यहाँ पर !
जब तक सबसे जुड़ ना पाएँ
कभी नहीं कल्याण यहाँ पर !
