दर्द ही काफ़ी है ...
दर्द ही काफ़ी है ...
चाह की शमशीर गज़लें, अंधी सी हो गई।
फ़ितरतें किरदार महंगी, सस्ती सी हो गई।।
जग की मैली सादगी भी, गुलबदन सी हो गई।
काम की बेदर्द बाँहें, आचरण सी हो गई।।
जो ना थी मैं बारिशों में, साजिशें मतलब न था।
बाढ़ की मौज़ूदगी में, ख्वाहिशें शबनम न था।।
मन धड़कता, तन धड़कता, धड़कता मौसम न था।
फूल की मासूमियत में, माल-ए-नफ़रत न था।।
साम झूठा, दाम झूठा, दंड झूठा बन गया।
भेद की काबीलियत से, मान झूठा बन गया।।
मन हृदय के द्वंद में, एक छाप झूठा बन गया।
झूठ की बगियों में रहकर, नाम झूठा बन गया।।
भक्ति शक्ति, मूर्ख भक्ति में समाहित कर गई।
दिल की मोहक वादियों में तम प्रवाहित कर गई।।
हारती हूँ रोज़ लेकिन बाजुएँ दामन में हैं ।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे मन में है।।
