दोस्तों की महफ़िल
दोस्तों की महफ़िल
दोस्तों की महफ़िल ले चले थे,
कारवां कब निकल गया, पता भी ना चला,
वक्त ने ऐसी रफ़्तार पकड़ी,जाने कौन कहां गया,
कब एक दूसरे से बिछड़े, पता भी ना चला।।
खींच लाता था हर रोज़ महफिल में दोस्तों का प्यार,
भूल जाते थे हम दुनिया सारी बातें होती थीं बेशुमार,
इस अनजान सी दुनिया में अपनों से बढ़कर दोस्त,
कब इतने अज़ीज़ हो गये पता भी ना चला।।
भूल जाते ग़म सारे चेहरे पर आ जाती थी मुस्कान,
दोस्ती हमारी बन गई हर सुख दुख की पहचान,
दुनिया के हर बंधन से ऊपर दोस्ती का ये रिश्ता,
इतना अनमोल कब बन गया पता भी ना चला।।
कितनी भी हो तकलीफ भूल जाते थे हम बातों ही बातों में,
शब्दों की जरूरत नहीं दोस्ती को, हर शब्द पढ़ लेते आंखों में,
एक आंसू निकले आंखों से उससे पहले ही हंसा देते थे दोस्त,
कब मुस्कान बनकर दिल में खिलने लगे पता भी ना चला।।
खून का कोई रिश्ता नहीं फिर भी हर ग़म हर दर्द बांट लेते थे,
बिछड़ेंगे हम एक दूसरे से ये ख्याल भी कभी मन में नहीं लाते थे,
ना चाहते हुए भी बिछड़ गए हम पर दोस्ती का रंग न हुआ फिका,
मिले बरसों बाद जब दुबारा, दोस्ती का वही रंग सबके चेहरे पर दिखा।।
जमने लगी दोस्तों की महफ़िल फिर से कारवां जुड़ता चला गया,
बिछड़े दोस्त सारे मिल गए बातों का वही सिलसिला फिर से शुरू हो गया,
वही रंग दोस्ती का, वही अंदाज, मानो कुछ छूटा ही ना था पीछे,
वक्त ने कब अलग किया कब मिलवा दिया हमें इसका पता ही ना चला।।
