दोहे
दोहे
सिरहाने की चुप्पियाँ, पैताने की चीख
मौन देह की अस्मिता, मृत्यु-पाश की भीख।।
दीवारें , ईंटें सभी , रोईं हर - पल साथ
दरवाजे, छत, खिड़कियां, छोड़ चले अब हाथ।।
खेत-मेंड़ लिखने लगे, फसलों का सन्दर्भ
देख इसे चुपचाप है, क्यों धरती का गर्भ??
मुड़ा-तुड़ा कागज हुआ, सूरज का विश्वास
बादल भी लिखने लगे , बुझी अनबुझी प्यास।।
टूट टूट गिरने लगे, नक्षत्रों के दाँत
उम्मीदें रूठी हुईं, ऐंठ रही है आँत।।
भूल गया मानव यहाँ, रिश्तों का भूगोल
भीतर बैठा भेड़िया, ऊपर मृग की खोल।
जटिल हुई जीवन्तता, टूट गए सम्वेद
उग आये फिर देह पर, कुछ मटमैले स्वेद।।
बाहर सम्मोहन दिखा, भीतर विषधर सर्प
अनपढ़ चिट्ठी ने पढ़े, अक्षर अक्षर दर्प।।