बातों की रेत
बातों की रेत
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मुंह की मुट्ठी से फिसली है
फिर बातों की रेत।
जिह्वा के सब प्रश्न बाँचती
स्वर का हर अध्याय,
उठा-पटक का बदल दिया है
उसने हर पर्याय
केवल कहने को साँसों का
समझ गई संकेत।
मौलिक संवादों की सारी
सूखी पड़ी जमीन,
दाँव खेलतीं भाषाएँ अब
हैं संवेदन हीन,
जोत रही हैं उलटे हल से
निरे समय का खेत।
अक्षर की धड़कनें तेज हैं
नीरस हर सन्दर्भ
नागफनी सी मर्यादा का
उजड़ गया है गर्भ
चढ़ा हुआ है उसके ऊपर
अब विभ्रम का प्रेत।
