दो गज प्रकृति
दो गज प्रकृति
दो हाथों की अंजुरी में सहेजती प्रकृति परिवेश,
मानव तेरे स्व-लोभ में घर-नगर बचे, न ही देश;
हाहाकार मचा धरा, नहीं जल-उपवन-अन्न शेष;
क्यूँ तू प्रलय लाने तुला, धरा क्यूँ मनु दानव भेसI
नीलम-अंबर नीली-नदी, सब लुप्त हुए संग अग्नेश;
अब कौन तारेगा वसुंधरा, सोच में ब्रह्मा-विष्णु-महेशI
