दो अजनबी
दो अजनबी
मेरी नज़रों के घेरे से
वो कभी बच नहीं पाई,
छुपना तो चाहा होगा
पर छुप नहीं पाई।
मेरी आदत से
बेखबर नहीं थी शायद,
फिर क्यों आँखों से ही सही
कुछ कह नहीं पाई।
अग्निरेखा की परिधियों में बंद
क्यों हमेशा से अजनबी ही रही,
भाव उसके मन में उपजा कि नहीं
पहेली अनबुझी ही रही।
कोई सिहरन,कोई तड़पन
जागी या नहीं ?
कोई चाहत से भरी धुन
गुनगुनाई या नहीं ?
मुझे सब जानने की इच्छा थी
पर वो काहे ये छुपाती ही रही,
आस थी कभी तो सामना होगा
पर बेफिक्री से वो दूरी बढ़ाती ही रही।
क्या कहीं मुझमें कमी थी कोई
या किसी और की चाहत में जली,
मुझसे कतराती रही
फेर कर नज़रें निकली।
आसमाँ के टूटे तारे सी
अचानक गुम हुई थी क्यों ?
मेरी नज़रें तो पढी थीं उसने
दिल की आवाज़ न सुनी थी क्यों ?
मेरे अरमान समझ न पाई
वरना ये हाल न होता मेरा।
दूर न मुझसे चली जाती वो
उसके हाथों में हाथ होता मेरा।
वक़्त का कडवे ज़हर जैसा घूँट
ना चाहकर भी मुझे पीना पड़ा,
जिसे देखकर जीने की आदत थी मुझे
खैर, अब उसके बिना जीना भी पड़ा।
मेरे अपनों ने भी हक जतलाकर
मेरा दमन किसी और से जोड़ा,
सिर्फ काया का बोझ ढोता रहा
जब से मन मेरा उसने तोड़ा।
वक़्त भी अपनी चाल चलता रहा
मैं भी पल-पल उसीमें ढलता रहा,
उसकी यादों को भुला बैठा हूँ
सोचकर खुद को छलता ही रहा।
वो आज अचानक मुझे नज़र आई
रगों में फिर वही सिहरन लहराई,
उसके चेहरे पर उदासी की झलक
शूल इक तेज़ चुभाती सी गई।
आज, उसने नज़र भरके देखा
देख आँखों में दर्द की रेखा,
मेरे दिल में भी तड़प लहराई
पर कोई दीवार भी उभर आई।
दोनों कुछ कहके भी
कुछ कह नहीं पाए,
अपने-अपने दायरों में
सिमटे नज़र आए।
नयन मूँदे
आज भी चुप है,
खुद में उलझी
जाने किन ख्यालों में गुम है ?
क्यों उसने कातर निगाहों से देखा ?
जज्बात का साया, चेहरे पर आया,
पहेली को सुलझाया भी तो तब
जब मैं अपने हक पीछे छोड़ आया।
सच अजनबीपन का एहसास
टूटकर होता चला गया,
चाहकर भी, कुछ न कर पाया मैं
दर्द में भीगता, डूबता चला गया।
एकतरफा प्यार को पहचान मिली
सोचकर चैन तो पाया मैंने,
पर अजनबीपन के बोझ तले
दिल को फिर टूटता पाया मैंने।