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Kavita Pant

Abstract

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शिकार

शिकार

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मेरी देह को

तार-तार अपमानित कर

कितनी कुंठाओं का ग्रास

बना डाला मुझे,


किसी ने धोखे से

अपनी हैवानियत का

शिकार बना डाला

और तामसी हवाओं ने

बुझा डाला मुझे।


मैं ही क्यों ?

मैं ही क्यों ?

मस्तिष्क की शिराओं में यह प्रश्न

सीसे सा पिघलकर

बार-बार सालता है मुझे


अपनी देह, मन

और आत्मा पर

हर पल यह बोझ

ढोना है मुझे।


घिनौने कृत्य ने दिए ज़ख्म

बाहर-भीतर

स्वप्न मेरे किये

तितर-बितर

ज़ख्म बाहर के मिट जाएँगे पर

भीतरी ज़ख्मों ने ताउम्र

तूफानों में झोंकना है मुझे।


मेरी बर्बादी

मेरे औरत होने का

सबूत है काफी

सुनके औरत को

कुदरत की ताकत


बस अब और ना

शर्मिंदा होना है मुझे

देखो तामसी हवाओं ने

बुझा डाला है मुझे।


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