धुँआ-धुआँ सा इश्क़
धुँआ-धुआँ सा इश्क़
आदत-ए-सिगार में यूँ रात भर
तुम कश पर कश लगाते गए
धुआँ-धुआँ सा इश्क़ हुआ मेरा
ऐसे तुम हवा में उड़ाते रहे
जलाने में इतना सितम
भी क्या कम था कि
सिगार को यूँ ही सुलगता
छोड़कर चल दिये
रात भर इश्क़ का धुआँ
ऐसा भरा मेरे दिल के कमरे में
वो सुलगती चिंगारी मेरे दिल के
अरमानों को ख़ाक कर गई
खत्म ही करनी थी दास्तान-ए-मोहब्बत
तो पूरा जला देते
यूँ पल-पल दिल में
आग लगाकर क्यों किये?