धरती पुत्र
धरती पुत्र
श्रम के साधक को विश्राम नहीं,
जब तारक मनी मंडित से
विभावरी रानी चक्षु खोले,
तब शबनम ढले नयन पट
मैंने भी खोले,
धरती माँ ने स्वेद की
बूंद संजोई मिट्टी में,
ज्यों मोती सजती सीप में,
अन्न देवता स्वयं आकर शीश झुकाते ,
कहते तू तो श्रम का पारस है,
तेरी मिट्टी तुझसे ही कंचन बन जाती है,
हाँ, मैं भूमि पुत्र हूँ,
श्रम गंगा है, श्रम जमुना श्रम ही सत्य धरम,
कैसे लेता तनिक भी विश्राम ?
उषा की सिंदूरी चुनरी जब लहराती है,
रंभा मेरी संजीवनी जब पोटली में बाँध देती है,
हर मंदिर का भगवान बना पत्थर कहता है,
कर कमलों में स्वयं वास विष्णु विधाता का रहता है,
हाँ मैं धरती पुत्र हूँ,
मैं श्रम का सच्चा साधक, कभी ना लेता विश्राम।
अनंतर में ज्यों जननी अपना आँचल फहराती है,
मानो राष्ट्र गान का अजान देकर मुझे जगाती है,
सदा श्रम में रत ही रहना,
तनिक ना विश्राम होना,
कहती भारत भारती
तू मेरा अनुयायी, तू अन्न उगाता है,
इसीलिए , मेरे देश में हरित कंचन बरसता है,
हाँ तू मेरा पुत्र है,
श्रम का सच्चा साधक,
कभी करता विश्राम नहीं।