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Abhilasha Chauhan

Abstract

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Abhilasha Chauhan

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धरोहर

धरोहर

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जिंदगी की धूप में

दुखों के अंधकार में

देखा है मैंने अक्सर

अपनों को मुंह छिपाते।


पहनकर पराएपन का मास्क

चुरा कर नजरें बचते-बचाते

पल्ला झाड़ कर अक्सर

देखा है मैंने उन्हें दूर जाते।


तब मरहम बन कर

आ जाते हैं अक्सर सामने

कुछ अनकहे रिश्ते

जो जानते देना

जिन्हें पता होते हैं मायने

जिंदगी के 

जो तपती धूप में

बन जाते हैं ठंडी छांव


जो चाहते नहीं

रिश्ते का कोई नाम

बस आहिस्ता से गमों को सहलाते

वीराने में फूल खिला जाते

जो अजनबी होकर भी

होते हैं सबसे अपने


जो लगते हैं जैसे हों सपने

पर बेनाम से ये रिश्ते

सम्हाल लेतें है

टूटती आस की डोर

इनके अपनेपन का

नहीं कोई ओर-छोर


ये अनजाना सा बंधन

जो जिंदगी के सफर में

चलते-चलते ही जुड़ जाता है

जब कोई न दे साथ

तब यही काम आता है


होती है ये धरोहर

अनमोल और खूबसूरत

जो रिश्तों की नई

लिखती है इबारत।


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