धर्म का अपना सुपथ है
धर्म का अपना सुपथ है
मैं निरंतर शोध की संकल्पना को ही चुनूँगा ।
जो मुझे ही बाँध दें उन बेड़ियों को तोड़ दूँगा ।।
जब मुझे ये धर्म की परछाइयाँ खलने लगेंगी,
बन्द मुट्ठी की पहेली सी मुझे छलने लगेंगी।
नीतिगत सद्भावना के खेत में काँटे उगेंगे,
शांति उपवन में सुखद पुष्पों को' ये चुभने लगेंगे..
तब मैं' ऐसे धर्म को भी मुस्कुराकर त्याग दूँगा....।
मैं निरंतर.....।।
धर्म का अपना सुपथ है धर्म की अपनी दिशा है,
धर्म सच्चाई, दया, करुणा, समर्पण पर टिका है ।
किन्तु जब यह जुगनुओं सा पथ भ्रमित करने लगेगा..
याकि सूरज की तरह आंखों को' मेरी भींच देगा ..
है शपथ मुझको न ऐसे पथ भ्रमित होकर चलूँगा....।
मैं निरंतर ......।।