मैं लिखता हूँ
मैं लिखता हूँ
सूर्य की पहुँच से भी दूर
सागर की गहराई में अति विमूढ़
मै स्वयं से बोलने की
कोशिश करता हूँ
हाँ हाँ, मैं लिखता हूँ।
प्रतिदिन हो रहे अत्याचार पर
अव्यवस्था और व्याभिचार पर
कलम को धार देने की
कोशिश करता हूँ
हाँ हाँ, मैं लिखता हूँ।
दबी आवाज़ का सारथी बनकर
लेखनी को तलवार समझकर
सच को सच कहने की जुर्रत रखता हूँ
हाँ हाँ, मैं लिखता हूँ।
कपोल कल्पित भावों का चित्र बनाकर
निज मुख का उद्भास दिखाकर
शब्दों को आईने का प्रतिरूप देता हूँ
हाँ हाँ, मैं लिखता हूँ।
स्वयं को अन्याय के विरूद्ध खड़ा कर
विद्रोहियों का समाज बनाकर
न कभी थकता न कभी रुकता हूँ
हाँ हाँ, मैं लिखता हूँ।
लोक वैभव और संपदा पर
सांसारिक प्रपंचों की लालसा पर
न किसी से मित्रता न रखता हूँ
हाँ हाँ, मैं लिखता हूँ।
रचना जो मेरा कर्म है
भाव जो मेरा मर्म है
मैं रचनाकार हूँ
बस मन की करता हूँ
हाँ हाँ, मैं भी लिखता हूँ।।