चिंता
चिंता
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एक रात यूं ही चलता सा जा रहा था
मस्तक पर चिंता का बोझ लिए जा रहा था
दुख और चिंता के बीच में ही, मैं
खुद को सबसे अकेला सा पा रहा था।
मैं संयमित होकर मार्ग के इतर झांक रहा था
कि स्वयं ही भावनाओं का सैलाब सा आ रहा था
क्या मैं उसी मार्ग पर चला जा रहा था
जहां से मैंने चलना शुरू किया था।
तभी भान हुआ कि मैं भविष्य की राह देख रहा था
अपने अतीत को भुलाता सा जा रहा था
वर्तमान को देखने की फ़ुरसत ही कहां थी मुझ में
क्योंकि मैं खुद से ही दूर सा जा रहा था।
जैसे ही मैंने खुद को संभाला सा था
अपनों से मिलने का मुकद्दर सा हुआ
माँ की चेहरे की इक मुस्कान देखते ही मुझे
क्या भूत क्या भविष्य सब अपना ही नजर आ रहा था।