धरा की छाती
धरा की छाती


कितनी मूंग दलेंगे आखिर,
हम इस धरा की छाती पर ?
अनियंत्रित आबादी के पाँव तले
वसुंधरा की छाती पर
जंगलों में है पसरा मातम,
देख विटपों की लाशों को
कौन सभालेंगा आकर अब
उखड़ती जीव जंतु की साँसों को
स्वार्थ ने इंसानों के,
जलायी चिता हरियाली की
ओजोन परत में करके छेद,
बिगाड़ी सूरत सूरज की लाली की
चल रहे सब लोग यहाँ अब
भोग विलास की परिपाटी पर,
कितनी मूंग दलेंगे आखिर,
हम इस धरा की छाती पर ?
अनियंत्रित आबादी के पाँव तले
वसुंधरा की छाती पर
प्यास से व्याकुल सरिताओं का
नीर हो चुका काला है
सरीसृपों के आंगन में भी
अब आता नहीं उजाला है
तालाबों के ह्रदय में चुभते
अनगिनत प्रदूषणों के शूल
सावन में भी है तपती भूमि
बादल रस्ता
अब जाते भूल
पंक्षियों के कलरव का स्वर
सुर से होकर टूटा है
बस्तियां बसाने के ख़ातिर
हर उपवन को लूटा है
दाग गहरे लगा दिए सबने
अपनी वन संपदा की थाती पर
कितनी मूंग दलेंगे आखिर,
हम इस धरा की छाती पर ?
अनियंत्रित आबादी के पाँव तले
वसुंधरा की छाती पर,
सजा भी देगी यह जननी
मत भूलो ए मतलबी इंसान
भूकंप, बाढ़, सुनामी जैसे
हैं कठोर उसके दंड विधान
आंसूओं के समंदर में
अब जगत को डूबना ही होगा
कुदरत के कहर से
पल दर पल जूझना ही होगा
प्रलय का यह मंजर कोई,
सपना नहीं हकीक़त है
गिरगिटी दुनिया की अभी
नही बदलने वाली नीयत है
जाएगा लेट मृत्यु लोक का शव
तब जीवन की एक खाटी पर
कितनी मूंग दलेंगे आखिर,
हम इस धरा की छाती पर ?