"देश की पुकार"
"देश की पुकार"
देश पुकारता है हम सब को
मेरी सुरक्षा का भार उठाओ
नहीं देश को बांटने देना
चाहे तो तलवार भाल उठा लो
सतर्क रहो राजनीति के ठेकेदारों से
जो घर-घर को बांट रहे
एक दूसरे का सहयोग करो सब
यह देश की पुकार है।
चारों तरफ फैली होशियारी
अपनापन भूल गए सब
भ्रष्ट प्रतिज्ञा करके आज
भीष्म बन कर बैठ गए तुम
स्वार्थ ने अपनी चादर ओढ़ ली
क्रूरता पैर पसार रही
दया की ज्योति ओझल ना हो
यह देश की पुकार है।
मानव पशु बन रहा है आज
पशुओं में भी दया है देखी
अपना हक सब याद रखते
पर कर्तव्य कौन निभा रहा
अपनी संपत्ति की रखवाली
सर्प बनकर कर रहे हैं
अपने स्वार्थ में न वतन खो देना
अपने वतन की सुरक्षा करना
यह देश की पुकार है।
आचार व्यवहार सब बदल गया
लुप्त हो रही अपनी संस्कृति
विदेशी सभ्यता फैल रही
संकीर्ण मानसिकता के कारण
सामान विदेशों का लगता प्रिय
देश में हो उन्नति सोच रहे
अत्याचार भ्रष्टाचार बलात्कार
दिन –प्रतिदिन हैं बढ़ रहे
मर्यादा संस्कृति की मत भूलो
यह देश की पुकार है।
घर-घर स्वार्थ फैल रहा
कपट ने है पैर पसारे
नास्तिकता बढ़ चली है सब में
विषय वासना में खो रहे सारे
शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान बनी
अनुशासन कर्तव्य भूल रहे सब
पर उन वीरों को मत भूलो
जो देश के लिए मर मिट गए
सत्य करूणा प्रेम साहस बलिदान
हो गर्व अपनी सभ्यता पर
यह देश की पुकार है।
