"अब वो गाँव कहां "
"अब वो गाँव कहां "
जीवन जो गांव में पला ,
प्रेम प्यार सहयोग से सजा,
नया– नवरा लगता था सवेरा,
जीवन सबका मुस्कान भरा।
खेल-खेल में दिन बीत जाता,
हर कोई अपना– सा लगता,
एक दूसरे को खूब रिझाते,
कभी नाराज तो कभी हंस पड़ते।
साधन भले ही कम होते थे,
पर सब एक– दूसरे के संग होते थे,
प्रेम–प्यार से सब मिलते थे,
सबको साथ लिए चलते थे।
अब गांव वही, पहाड़–पेड़ वही,
पर लोगों में वो सुख–चैन नहीं,
शहरीकरण की हवा जो आई,
जीवन गांव का नीरस कर गई।
मतलब और चतुराई बढ़ गई,
जीने की ठुकराई बढ़ गई,
दीन–दया का समय घट गया,
अपने आप में अपनी बढ़ाई।
गांव में अब सड़कें हैं आई,
चकाचौंध शहरों सी छाई,
सुनसान पड़ रहे सारे घर– वार,
देख मन में है निराशा छाई।
सोच भले ही नई रखो तुम,
पर जीवन वह पुराना ही भला,
गैर उसमें लगता ना कोई,
रूठे को भी लेते थे मना।
सुख में हंसी–मजाक उड़ाते,
दु:ख में पूरा साथ निभाते,
वही पुराना गांव है प्यारा,
जो दूसरों को भी अपना ही बताते ।
