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Vandana Singh

Tragedy

4.5  

Vandana Singh

Tragedy

डर के कुछ ना कह पाती हूं

डर के कुछ ना कह पाती हूं

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रोज़ काम पर जाती हूं

मन को बहुत उलझाती हूं

पर फिर भी घबराती हूं

विचलित, लौटकर आती हूं


माँ हूं, बेटी हूं, पत्नी हूं या सिर्फ औरत हूं

कि डर के कुछ ना कह पाती हूं

लोगों की नज़रें घूरती है

अंदर तक ताड़ जाती है

मुंह सिल कर, मन मारकर

खून के घूंट, चुपचाप पी जाती हूं


मां हूं, बेटी हूं, पत्नी हूं या फिर सिर्फ औरत हूं

कि डर के कुछ ना कह पाती हूं

विकास के किस देहलीज पर खड़ी हूं मैं

औरो से क्या, कई अपनों से भी लड़ी हूं मैं

अपनी पहचान ढूंढ़ने में

अपनी जान गवांती हूं


मां ह

ूं, बेटी हूं, पत्नी हूं या सिर्फ औरत हूं

कि डर के कुछ ना कह पाती हूं

जिस ओर निकलती, उस ओर भय है

जो कुछ पढ़ती उस में भय है

किस भाव से शरीर काम में

और आत्मा बेटी के पास छोड़ आती हूं


मां हूं, बेटी हूं, पत्नी हूं या सिर्फ औरत हूं

कि डर के कुछ ना कह पाती हूं

आगे जाने क्या होगा, ये डर कौन हरेगा?

यूं ही बेटियां ताड़ ताड़ कर मार दी जाएंगी


और मरने के बाद भी बोटियां नोच ली जाएंगी

कांपते स्वर से रोज़ अलविदा कह निकल जाती हूं

मां हूं, बेटी हूं, पत्नी हूं या सिर्फ औरत हूं

कि डर के कुछ ना कह पाती हूं।


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