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Raju Kumar Shah

Abstract

4.5  

Raju Kumar Shah

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ढूंढ़े थे वे निशान

ढूंढ़े थे वे निशान

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मैंने अपने शहर में ढूंढ़े थे वे निशान!

जो लौट आने के लिए आतुर होकर गए थे,

जो शहर से जाते ही मिट गए ,

जो ख्वाब की तरह ओझल हो गए ,

जो शरीर के मिटते ही,

परछाइयों की तरह गल गए थे!


मैंने अपने शहर में ढूंढें थे वे निशान!

जो तेरे जैसे लगते थे,

जो तेरे रूप में ठगते थे,

जो जरा भी नहीं जंचते थे,

जिनसे मिलते ही हम कोसो दूर भगते थे,

मैंने अपने शहर में ढूंढ़े थे वे निशान!


मैंने अपने शहर में ढूंढें थे वे निशान,

जिन्हें याद हो की किसी ने वादा किया है,

सब्र! हद से ज्यादा किया है,

जिसकी निगाहें शहर की तरफ आने वालों को देखती हैं,

कि कुछ मिल जाए तुम सा मिलता जुलता,

खिल जाए एक पुष्प झुलसता,

नाउम्मीद शहर बस जाए,

एक ढूंढता शहर, इसी शहर में रह जाए,

पर अब देर हो रही है,

अंधेरे में लौ डूब रही है,

लेने के लिए किसी इंतजार की जान!

जिसने अपने शहर में ढूंढे थे तेरे निशान!!


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