दास्तान ए मजदूर
दास्तान ए मजदूर
कौन सी डोर से बंधा हुआ है ये चरखा..
एक तरफ उस आलीशान इमारत में तीन का बसेरा,
और यहां हम पचास मज़दूरों का सड़कों पर घेरा...
एक घर जाने की चाह के लिए रोज़ ठोकरें खाता हूँ,
तुम्हारे इन ख़ूबसूरत मकानों का
मैं सबसे मज़बूत और पुराना सहारा हूँl
आज रेडियो पे गाना सुना-
"जो साथ दे सारा इंडिया, फिर मुस्कुराएगा इंडिया "
क्या तुम को चाहिए साथ मेरा,
जब छूना भी नहीं चाहते हाथ मेरा l
मुसकुराओगे तुम, मेरे हिस्से तो तब भी आँसू ही आएँगे l
कौन सा भारत जिसके चित्र में भी मेरा जिक्र नहीं!
जिसके मुद्दों में भी मेरी फ़िक्र नहीं
टूट गया है बसेरा मेरा, तुमने तो बहुत ठान के कहा था
चुनाव के समय करो भरोसा मेरा
आज घर जाने की ज़िद करी है सिदयों बाद,
आज मीलों नापने कदमों के पार,
आज मुलाकात हुई मेरी गुड़िया रानी से ,
उसने पहचाना ना मुझे पर धीमें से मुस्करायी,
माँ की झुर्रियाँ देख कर कितनी सिदयाँ गुज़र गयी
ये बात याद आई l
एक मैं भी हूँ एक माँ, आज भी जल रही हूँ धूप में!
खूबसूरत ना समझा था कभी,
पर आईनों में भी लग रही हूँ कुरूप मैं !
इतने ज़ख्म है शरीर पर कैसे समझाऊँ,
माँ हूँ मैं ए मुसािफर!
अपने एक साल के बच्चे को कहाँ से अपना दूध पिलाऊँ
हक नहीं मुझे की इस सरकार से सवाल करूँ,
बात रखूँ अपनी तो वो बोले मैं बवाल करूँ,
डर लगता है कहीं दब ना जाऊँ इनके कदमों तले यूँ ,
की धुंधला अपना अक्स शीशे में तो खाक ही पाऊँl
आज पैरों में छाले हैं, कंधों पे भोज है और
आँखों में नमी भी छलक रही है ,
भीख नहीं मेरा भाग मांगता हूँ ,
तुम्हारी ये सड़कें मेरी देन हैं ,
ए दोस्त! मैं अपना घर लौटने का अधिकार मांगता हूँl