चुप क्यों हो
चुप क्यों हो
कभी बताया नहीं तुमने
क्यों बेमकसद
खफा ख़फ़ा रहती हो मुझसे
जब भी चाहा मन की बेचैनी को बताना
फिर कोई नया बहाना बनाकर
नज़रें फेर लेती हो
कोई शिकायत है मुझसे
तो खुलकर बताती क्यूं नहीं
मगर ये भी अब तक तुमसे हो न सका
मनाऊँ भी तो किसे मनाऊँ
सलीके से रूठना भी तुमको आता नहीं
जाने किस माटी की बनी हो तुम
सच है बुरा हूँ मैं
मगर इतना बुरा भी नहीं
तुम गुमसुम रहो हर पल मेरी आंखों के सामने
और फिर तुम ये उम्मीद करो मुझसे कि
मौन रहकर देखूं तमाशा
तुम्हारे चेहरे पर तैरती खामोशियों का
ना मुझसे ये न हो पाएगा
तुमको पाकर खोना भी नहीं चाहता
और तुम मेरी होकर भी मेरा होना नहीं चाहती
बहुत हो चुका लुका छिपी का ये खेल
हो सके तो तनिक विराम दो इस कशमकश को
सांझ ढलने से पहले कहीं ढल न जाए
मेरी दीवानगी का सूरज
फिर शिकायत मत करना कि बताया नहीं
न कभी इज़हार करती हो
न कभी इकरार हो करती हो
और हाँ इंकार करने का हुनर भी ठीक से आता नहीं
जाने किस उलझन के पहाड़ पर खड़ी होकर
कभी हवाओं की रफ़्तार नापती हो
कभी मुझे देखकर पलकें झुका लेती हो
बस डर है तो सिर्फ़ इस बात का कि
कहीं वक़्त उड़ाकर न ले जाये
हमारी मोहब्बत के चमकीले मोतियों को
जैसे कोई बदतमीज तूफान उड़ाकर के जाता है
रेगिस्तान की मुठ्ठी से रेत के सुनहरे कण।