"चरण कहाँ रूक पातें हैं " !
"चरण कहाँ रूक पातें हैं " !
पथ पर कितना गहन कुहांसा,
कहीं आंधिंयां बल आज़माती।
हवाएं भी दे रही चुनौती,
लेकिन चरण कहां रुक पातें ?
चलती सांसें नव-विकास की,
सजृन नया जीवन दे जाता।
संकल्पों के खुले गााँव में,
बीता कल नव-गीत सुनाता,
अपनों से डरे अब,
विश्वासों के बादल छाते।
लेकिन चरण कहां रुक पाते?
नये क्षितज ठहर रहे शिरा पर,
मुक्त पवन के झोंके आते,
लेकिन चरण कहाँ रुक पाते ?
अपनी फसलें, मौसम अपना,
कौन रोक पाया सुखिन:को,
बस्ती-बस्ती नई उमींगें,
चलती नव -सजनृ की
पुरवाई छू रही है,
मुक्त गगन को
लेकिन चरण कहां रुक पातें ?