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चंद लम्हे हँसा कर कहीं चले जाते हैं

चंद लम्हे हँसा कर कहीं चले जाते हैं

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चंद लम्हे हँसा कर मुझे 
कहीं चले जाते हैं
अफ़साना सा शायर ही क्यों ना बन जाऊँ

ताल्लुक रखती ज़िंदगी सादे पन्नों जैसी 
कुछ गुदगुदी स्याही भर कर नम हो जाते हैं

तबज्जो नहीं मुझे हर इंसान की नियत का 
उनका भी ग़म ख़ुद में समा कर जीना सीखा जाते हैं

दौड़ती ज़िंदगी ऐसी छूट गई किसी स्टेशन पर 
फिर रुक कर भी न हँस पाते हैं

चंद लमहे हँसा कर मुझे कहीं चले जाते हैं

अजनबी हमेशा ही रहा हूँ
पर शायद पन्ने ही हमेशा बोल जाते हैं

परवाह है ना अपना सकूँ 
चाँद की चाँदनी को 
अक्सर ही बेइज्जत सरेआम कर जाते हैं

ख़ुदा की नैमत भी किसी गुनाह की तस्वीर है 
शायद हर इंसान की इबादत में ज़ुबान पर पाते हैं

चंद लम्हे हँसा कर मुझे कहीं चले जाते हैं

 


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