चलता है
चलता है
मिट्टी का एक पुतला ज्ञानी,
करता बस अपनी मनमानी,
नस्लों में भेद कराता है,
खुद को इंसान बताता है।
अपने खोदे गड्ढे में ये,
खुद गिरता और निकलता है,
कलियुग के नए इस दौर में,
इतना तो भईया चलता है।
भगवान के दर पे रोज़ सुबह,
मखमल की शाल ओढ़ाता है,
भूखे को रोटी दे न सके,
पत्थर पे फूल चढ़ाता है।
मन में नफरत का भर के गोबर,
चंदन शरीर पर मलता है,
खुद को समृद्ध दिखाने में,
इतना तो भईया चलता है।
नारी को माता माने पर,
उसकी शक्ति न जान सका,
जग के सृजन के स्रोत की,
मिट्टी को न पहचान सका।
हल्दी में सने बिटिया का तन,
मिट्टी के तेल में जलता है,
धन संपत्ति के लालच में,
इतना तो भईया चलता है।
ऑफिस में बॉस ने डाँट दिया,
महीने का वेतन काट दिया,
चिंतित हो किसी परेशानी से,
या बच्चों की शैतानी से।
होटल के दाल का गुस्सा भी,
घर की मुर्गी पे निकलता है,
गुस्से पर काबू पाने में,
इतना तो भईया चलता है।
माँ बाप बूढ़े लाचार हुए,
अपने बच्चों पे भार हुए,
दूषित सारे संस्कार हुए,
उनसे झगड़े कई बार हुए।
माँ बाप को बेघर करने में,
बच्चों का दिल न दहलता है,
शिक्षित और सभ्य समाज में,
इतना तो भईया चलता है।
वादों की लगा दी एक झड़ी,
जुमलों की बनी फ़ेहरिस्त बड़ी,
जनता ने फिर भी नहीं सुनी,
झूठों की सत्ता नहीं चुनी।
अपना अस्तित्व बचाने को,
गले दुश्मन से भी मिलता है,
सत्ता में फिर से आने में,
इतना तो भईया चलता है।
अपने शरीर को छोड़ इसे,
अब न ही किसी की चिंता है,
जिनको तड़पा कर मार दिया,
लाशें क्यों उनकी गिनता है।
सच कहने की हिम्मत ही नहीं,
गिरगिट सा रंग बदलता है,
जीवन भर हीं सुख पाने में,
इतना तो भईया चलता है।
जब आया जीवन का अंत निकट,
बच्चों ने हाथ फिर छोड़ दिया,
अपनों से मिला जो बोया था,
साँसों ने भी दम तोड़ दिया।
सुबह को चढ़ा हो जो सूरज,
वह उसी शाम को ढलता है,
रोके न रुके किसी के कारण,
पहिया जो काल का चलता है।
