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Anshu Kumar

Abstract Tragedy

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Anshu Kumar

Abstract Tragedy

पलायन

पलायन

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मन की व्यथा से मुँह मोड़कर

दुनिया फ़रेब की छोड़ चले

यादों की बनाकर इक गठरी

अपनी माटी की ओर चले


राहों में ठोकर से पाए

ज़ख्मों की चिंता कौन करे

जब भूख से मरना निश्चित हो

तब बीमारी से कौन डरे 


है बात अभी कल की शायद

हम यहीं ख़ुशी से रहते थे

मेहनत की रोटी खाते थे

तुमसे पर कुछ न कहते थे


सब साथ रहेंगे ये वादा

तुमने पल भर में तोड़ दिया

खुद बैठे रहे घर में, मुझ को

पटरी पर मरने छोड़ दिया ?


माना की जलती सड़कों पर

चलने को मैं मजबूर हूँ

है आदत मुझ को जलने की

मैं तो भईया मज़दूर हूँ


जिनके दम पर जीता चुनाव

कहाँ अब तेरे वो उसूल गए

मुझसे जो किये, उन वादों को

इतनी जल्दी क्यों भूल गए


जब तुम सुरक्षित बैठे थे

अपने घर की दीवारों में

दिन भर मैं धूप में खड़ा रहा

स्टेशन की लम्बी कतारों में


सरकारी तंत्र को भी जैसे

हमसे कोई बदला लेना था

गाड़ी में चढ़ने से पहले

टिकटों का पैसा देना था


पैसे होते जो पास मेरे

तो क्यों लगता मैं कतारों में

तुम सब की तरह मैं भी रहता

बैठा अपने दरबारों में 


फिर सुनी खबर एक दिन शायद

किसी पैकेज का ऐलान हुआ

इतनी अच्छी सरकार है तो

फिर क्यों मैं भला परेशान हुआ


जिससे मदद की आस थी

वो आत्मनिर्भरता सिखा गया

चाल चरित्र और चेहरा वो

अपना हम सब को दिखा गया


माना मैं बूढ़ा हूँ लेकिन

बिटिया मेरी अभिमानी है

जिसको दुर्बल तू समझता है

उसकी शक्ति नहीं जानी है


जबतक वो मेरे साथ है

बेटे की कमी न खलती है

रूकती न किसी के रोके फिर

साइकिल जब उसकी चलती है 


तेरे शहर से बड़ी दूर कहीं

अपनी ज़मी पे बस जाऊँगा

मुश्किल में पड़ोगे जब भी तुम

मैं फिर दौड़ा चला आऊंगा


दुआ मेरी है बस रब से

यादें ये ख़्वाब न बन जाएं

रिस्ता है जो एड़ियों से लहू

वो इंकलाब न बन जाए 


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